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Jatela Dham : सबके दु:खहर्ता संत स्वामी नितानन्द जी महाराज

स्वामी नितानन्द जी महाराज।स्वामी नितानन्द जी महाराज।

Jatela Dham

  • स्वामी नितानन्द महाराज के 225वें निर्वाण दिवस पर विशेष
  • स्वामी ने जाल के पेड़ के नीचे बैठकर वर्षों तक तपस्या की और लोगों के दु:ख हरे
  • स्वामी नितानन्द जी महाराज का निर्वाण दिवस हर साल भादों सुदी एकम को मनाया जाता है
  • विशेष रिपोर्ट नेहा राणा
    Jatela Dham से      विशेष रिपोर्ट
    नेहा राणा

     

  • दया करो उर में बसो, स्वामी जी महाराज।
    निज जीवन इतिहास को, संशोधन के काज ॥
    श्री स्वामी नितानन्दजी की, लिखी जीवनी शोध।
    मात पिता को नाम मिला, नहीं जन्म को बोध ॥
    ग्रन्थ श्रवण से होत है, मन में यह प्रतीत।
    भाषा संस्कृत फारसी, पढ़ गुण भये अतीत ॥

 

 

Jatela Dham : हरियाणा की पवित्र धरा पर जन्मे सबके दु:खहर्ता संत शिरोमणि स्वामी नितानन्द जी महाराज ने सभी के कष्ट हरे और सुख, शांति और समृद्धि का आशीर्वाद दिया। स्वामी जी ने अपने तपोबल और यश से ज्ञान का प्रकाश करके संसार के उद्धारार्थ श्रेष्ठ मार्ग बताया। यह मार्ग इतना सीधा है कि निरक्षर मनुष्य भी उस मार्ग पर चलते हुए कल्याण की प्राप्ति कर सकते हैं। स्वामी जी की जन्मभूमि नारनौल थी और ये ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए। उनकी तपोभूमि झज्जर के गांव माजरा डी में स्थित जटेला धाम रही। यहां उन्होंने एक तालाब के किनारे जाल के पेड़ के नीचे बैठकर वर्षों तक तपस्या की और लोगों के दु:ख हरे। स्वामी नितानन्द महाराज का 225वां निर्वाण दिवस 4 सितंबर को मनाया जाएगा। इस अवसर पर जटेला धाम में भंडारा लगेगा और जटेला धाम के पीठाधीश महाराज राजेंद्र दास जी अपने प्रवचनों से साध संगत को निहाल करेंगे। बता दें कि स्वामी नितानन्द जी महाराज का निर्वाण दिवस हर साल भादों सुदी एकम को मनाया जाता है। इस दिन दूर-दराज से बड़े-बड़े संत महात्मा स्वामी की तपोभूमि पहुंचकर स्वामी नितानन्द की गुरुवाणी पर प्रकाश डालते हैं और स्वामी नितानन्द की प्रतिमा के सामने दीप प्रज्वलित कर पवित्र जाल के वृक्ष के दर्शन करते हैं। इसके दर्शन् मात्र से ही मानव मन पवित्र हो जाता है। स्वामी जी के बारे में अनेक दंतकथाएं प्रचलित हैं। बताया जाता है कि स्वामी नितानन्द जी महाराज का जन्म नारनौल गांव रियासत पटियाला (स्टेट में है) हुआ था। नारनौल में स्वामी जी के चार मकान आज भी मौजूद हैं। हालांकि वर्तमान समय में उनके परिवार का कोई मनुष्य वहां नहीं है। स्वामी जी के बचपन का नाम नन्दलाल था। महान तपस्वी स्वामी नितानन्द महाराज अकबर के महामंत्री बीरबल के वंशज बताए जाते हैं। स्वयं भी वह भरतपुर की रियासत में तहसीलदार के पद पर रहे। इसके बाद उन्हें एक घटना ने प्रभु चरणों का दास बना दिया। इसके बाद धन दौलत और राजसी ठाठ-बाट छोड़कर पत्नी के देहावसान के बाद सांसारिक बंधन की बेड़ियों को काटकर भक्ति में लीन हो गए।

पिताजी का नाम श्री दुर्गादत्त और माता जी का नाम माता सरस्वती

पं. सागर मल सुपुत्र बिहारी लाल याज्ञिक (जागा) मु. पो. शाहपुर जिला-जयपुर (राजस्थान) के लेखों के उद्धरण के अनुसार स्वामी नितानन्द जी के पिताजी का नाम श्री दुर्गादत्त एवं माता जी का नाम सरस्वती था। लेख के अनुसार बीरबल से (स्वामी नितानन्द जी) नन्दलाल जी तक उत्पन्न हुए पुरुषों के नाम इस प्रकार हैं:- बीरबल-देवदत्त- गौरीदत्त-गणेशदत्त शिवदत्त दुर्गादत्त-नन्दलाल (जो बाद में स्वामी नितानन्द जी के नाम से प्रसिद्ध हुए) उनके नाना सिताबराय रेवाड़ी के निवासी थे। पं. सागर मल के पूर्वजों ने यह लेख विक्रमी संवत् 1772 में लिखा था। जब में नन्दलाल जी के जन्म की बधाई लेने गए। अतः स्वामी जी का जन्म इस से 5-7 वर्ष पूर्व ही माना जाना चाहिए। स्वामी जी के पिता रियासत भरतपुर में किसी उच्च पद पर सुशोभित थे। नन्दलाल का प्रथम विवाह बाल्य अवस्था में हुआ, तथापि वह देवी अपने ही घर विराजते हुए स्वर्गवास हुई। दूसरा विवाह इन की तरुण अवस्था में इन के प्रतिकूल माता पिता ने हठ वंश कर दिया।
यथा साखी माता पिता कुसंग है, पकड़ बंध में देत ।
हर सा हितू बिसार कर, अंध अंध कर लेत ॥

सागरमल के लेख में क्या

सागरमल के लेख के अनुसार नन्दलाल भी भरतपुर ही में तहसीलदार थे, और वृन्दावन में निवास करते थे। वृन्दावन में ही वैष्णाय सम्प्रदाय के एक महात्मा बाल ब्रह्मचारी स्वामी गुमानीदास जी रहा करते थे, दैवयोग से एक दिन नन्दलाल का उनसे मिलाप हो गया और तत्पश्चात वे नित्य सत्संग करने लगे। नन्दलाल पहले से भी ईश्वर के उपासक थे, इसलिए उनपर भक्ति का रंग जल्दी ही चढ़ गया। इसी समय नन्दलाल की स्त्री के द्विरागमन का समय समीप आया तो नन्दलाल ने सब प्रसंग महाराज गुमानीदास जी को सुनाया। इसके बाद गुमानीदास जी ने कहा कि हे प्यारे इस प्रकार कार्य कैसे बने कि (एक म्यान में दो तलवार) भक्ति और माया दोनों एक स्थान पर कैसे रह सकते हैं। अत: तुम इस समय माया का आनन्द लो। तुम्हें अपनी स्त्री को लाना होगा। तुमको चाहिये कि तुम इस के लिए हठ न करो, नन्दलाल ने कई बार मना किया परन्तु उनके पिता ने समझाया, महाराज के कथनानुसार नन्दलाल अपनी स्त्री को ले आए। परन्तु सांसारिक सुखों की नन्दलाल के दिल में इच्छा न थी इसलिए संध्या काल में भोजन करके दो तीन दिन पर्यन्त महाराज गुमानीदास जी के पास पहले की तरह जाने लगे। दो चार दिन के पश्चात नन्दलाल की स्त्री ने सोचा कि मेरा पति कहां जाता है, मेरा यहां आना ठीक नहीं हुआ। लाचार एक दिन रात के बारह बजे एक वृद्धा स्त्री  को साथ ले कर उस मकान पर गई जहां नन्दलाल विश्राम करते थे। नन्दलाल स्त्री को आती देख कर कोठरी से बाहर आ गए। स्त्री उस आसन पर जा बैठी, जहां नन्दलाल भजन करते थे। इतने में नन्दलाल के चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ। हे स्वामिन ! तीन बातों में से कोई एक अवश्य होनी चाहिए। या तो मेरे विचार पलट दिए जाएं अन्यथा मेरी मृत्यु होनी चाहिए अथवा मेरी स्त्री की। मन में ऐसा विचार करते ही नन्दलाल की स्त्री तत्काल बीमार हो गई और एक सप्ताह जीवित रह कर मृत्यु को प्राप्त हो गई। नन्दलाल ने अपनी स्त्री का क्रिया कर्म किया और छुट्टी लेकर अपने पिता के पास चले गए।

मकान में भी हुई लूट

यह समय लगभग संवत् 1814 का था। इनका मकान जो नारनौल में था लूटा गया। नारनौल से समाचार मिला कि नन्दलाल तुम्हारी लाल हवेली का सब धन हरण हो गया है। सन्ध्या समय नन्दलाल के पिता घर आए तब उसने अपने पिता से कहा कि हे! पिता जी हमारी लाल हवेली लुट गई। इनके पिता यह समाचार सुनते ही स्वर्गवासी हो गए। यह हाल देख नन्दलाल चकित रह गया और सोचा कि जीवन कुछ भी वस्तु नहीं है। इसके बाद वे प्रातःकाल अदालत में गए और त्याग पत्र दे दिया और पिता का क्रिया कर्म करने लगे। क्रिया कर्म करके अपने नाना के पास जाना निश्चित किया। जब महाराज भरतपुर को यह समाचार विदित हुआ कि नन्दलाल त्याग पत्र देकर अपने नाना के समीप रेवाड़ी जा रहे हैं तो महाराज ने सेवक भेजकर नन्दलाल को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम अपने पिता के स्थान को स्वीकार करो। नन्दलाल ने उत्तर दिया कि महाराज मेरा चित्त काम करने से हट गया। इसलिए मैं इस स्थान पर रहना नहीं चाहता। राजा ने कहा कि ऐसा क्यों करते हो। कुछ दिन के लिए आराम करो ताकि चित्त को शान्ति हो। और जिस वस्तु की तुमको इच्छा होवे मेरे पास से मंगा लो, नन्दलाल ने उनकी बात नहीं मानी, महाराज ने कहा अच्छा तुम्हारी इच्छा, पर इतना अवश्य करो कि जो खर्च महीने में हो सो खजाने से लिया करो। मैं प्रसन्नता से दे दूंगा। परंतु नन्दलाल ने यह बात भी स्वीकार न की। और कहा यदि महाराज की प्रसन्नता हों तो यह घोड़ा मेरी सवारी के लिए दे दो। महाराज ने प्रसन्न होकर वह घोड़ा दे दिया। एक दो दिन वहां रह कर घोड़ा ले अपने नाना सिताबराय के घर रेवाड़ी चले आए। सिताबराय ने नन्दलाल से कहा कि हे पुत्र! क्या समाचार है। नन्दलाल ने सारा वृत्तान्त जो भरतपुर में बीता था सब कह सुनाया।

गुमानीदास जी ने किया मार्गदर्शन

सिताबराय ने नन्दलाल की सेवा करने के लिए एक सेवक निश्चित किया और कहा कि तुम प्रतिदिन सैर किया करो ताकि तुम्हारा चित्त ठीक हो जावे। नन्दलाल प्रातःकाल और सायंकाल सैर को जाया करते थे। स्वामी गुमानीदास जी वृन्दावन से चलकर रेवाड़ी के बाहर वन में आकर तप करने लगे। इसी दौरान नन्दालाल की महात्मा गुमानीदास जी से फिर मुलाकात हो गई। स्वामी गुमानीदास जी ने पूछा कहो भाई क्या समाचार है। नन्दलाल ने उत्तर दिया कि मेरे पिता का शरीर पूरा हो गया है और मैं नौकरी छोड़कर अपने नाना के समीप आकर निवास करता हूं। महाराज गुमानीदास जी ने पूछा, अब तेरी क्या सम्मति है। नन्दलाल ने प्रणाम करके उत्तर दिया कि महाराज कुछ उद्धार का मार्ग बताइए। स्वामी गुमानीदास जी ने कहा कि हे प्यारे उद्धार का मार्ग परीक्षा के बिना नहीं बताया जा सकता यदि तुमको उद्धार की इच्छा है तो सरलता धारण करो। यह सुनकर नन्दलाल कुछ समय पर्यन्त वहां बैठे रहे फिर घोड़े पर सवार हो रेवाड़ी चले आए। नगर के निकट आन कर सेवक से बोले कि भाई यह घोड़ा या तो मेरे नाना को दे दो या अपने पास रखो मैं घर नहीं जाऊंगा। उसी स्थान पर महात्मा के समीप जाता हूं। यह कहकर घोड़ा, कपड़े सेवक को सौंप आप स्वामी गुमानीदास जी के समीप आ गए। सेवक सामान को और घोड़े को लेकर सिताबराय के समीप गया और नन्दलाल का सब वृत्तान्त कह सुनाया। सिताबराय यह वृत्तान्त सुनकर कई आदमी साथ लेकर नन्दलाल के पाया गए। स्वामी गुमानीदास जी से कहा, महाराज। महात्मा सब की रक्षा किया करते हैं इसलिए यह लड़का हमको दे दो। स्वामी गुमानीदास जी ने कहा ले जाओ तब सिताबराय ने नन्दलाल से कहा चलो भाई घर चलिए तुम्हारे माता पिता नहीं हैं तो कुछ चिन्ता मत करो मैं तो हूं। नन्दलाल ने कहा कि नाना जी। अब मैं घर नहीं चलूंगा। मुझको सांसारिक भोग और सुख की इच्छा नहीं है। इसलिए मुझे दुःखी मत करो, आप प्रसन्न मन हो वापस चले जाओ। सिताबराय निराश होकर अपने घर पधारे। फिर नन्दलाल ने स्वामी गुमानीदास जी से प्रार्थना की कि हे महाराज। अब मुझे उपदेश दीजिए स्वामी गुमानीदास जी ने कहा, हे भाई फकीरी का घर दूर है इस झंझट में मत पड़ो। और वैसे ही घर में रहते हुए भजन करो, लेकिन नंदलाल ने कहा, कृपा करके उपदेश दीजिए, इस पर स्वामी गुमानीदास जी ने भेष दे दिया और नन्दलाल नितानन्द बन गए।

ऐसे मिले हिम्मतराम जी

एक दिन स्वामी गुमानीदास जी प्रातः काल वन में चले गए, नितानन्द जी कुटिया में काम कर रहे थे तभी हिम्मतराम बनिया भऊ निवासी स्वामी जी की कुटिया में आए और स्वामी गुमानीदास जी के आसन पर बैठ गए। नितानन्द ने पूछा आप कौन हैं जो बिना आज्ञा मेरे गुरु के आसन पर बैठ गए हो। इस पर लाला हिम्मतराम ने कुछ उत्तर न दिया, और बिना कुछ कहे उठकर भऊ को चले गए। जब स्वामी गुमानीदास जी कुटिया पर आए तब नितानन्द ने कहा महाराज। एक मनुष्य आया था और आप के आसन पर बैठ गया। मैंने टोका तो वे उठकर चले गए। इस पर स्वामी गुमानीवास जी ने कहा तुम ने यह अच्छा काम नहीं किया वह तो भऊ से आए थे और उनका हिम्मतराम नाम था और जाति के वैश्य थे। वह गृहस्थी हैं परन्तु भजन करने में पूरे हैं। मेरे दर्शनों के लिए कई बार आया करते हैं। तुमने उनको कुछ अपशब्द कह दिया जिस के कारण वह तत्काल चले गए। यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं हुआ।अब तुम उसके घर जाओ को अपराध की क्षमा मांगो। तुम जब उनके घर पहुंचो कुछ न कहना, मौन धारण किए खड़े रहना। जिस समय हिम्मतराम तुम से पूछे तब कहना, कि हे महाराज! मुझ से अज्ञानतावश आप का अपराध हो गया है आप क्षमा कीजिए। इतनी बात स्वामी गुमानीदास जी से सुनकर नितानन्द ने उसी समय भऊ को प्रस्थान किया। सांयकाल को हिम्मतराम के घर पहुंचे, और द्वार पर मौन धारण किए खड़े रहे। हिम्मतराम ने देखा कि जो कुटिया में स्वामी गुमानीदास जी का शिष्य मिला था वही, द्वार पर खड़ा है और कुछ बोलता नहीं। अगले दिन प्रातःकाल हिम्मतराम की स्त्री ने कहा कि हे पति देव कल का एक साधु आप के द्वार पर खड़ा है, न कुछ कहता है और न तो कुछ मांगता है। यह मनुष्य कौन है? हिम्मतराम ने कहा कि तुम को क्या पड़ी है, बहुत साधु खड़े रहते हैं। जब संध्या समय हुआ और उन को आठ पहर लगातार द्वार पर खड़े-खड़े बीत गए। तब हिम्मतराम की स्त्री ने कहा महाराज ऐसा नहीं होना चाहिए। इसके बाद हिम्मतराम ने नितानन्त को भीतर बुला लिया और नितानन्द को देखकर हंस पड़े और कहने लगे कि आप कुछ दिन यहां निवास करो। स्वामी जी वहां एक वर्ष पर्यन्त रहे और लाला हिम्मतराम की तन मन से सेवा करते रहे। एक दिन का वृत्तान्त है कि दैवयोग से एक पात्र टूटने की ध्वनि कान में पड़ी। तब लाला जी ने नितानन्द से कहा कि भाई देखना क्या वस्तु गिरी है, नितानन्द ने कहा लाला जी गिरा कुछ नहीं वरन् इसमें कुछ और मिला है। चिन्ता करने की कोई घटना नहीं हुई। लाला जी ने नितानन्द जी की परीक्षा करने के निमित्त रखा था, सेवा के हेतु नहीं ठहराया था। इस घटना से लाला जी ने उनकी परीक्षा ली और आशीर्वाद देकर कहा कि आप की मनोकामना अवश्य पूरी होगी। अब यहां ठहरने की आवश्यकता नहीं है। नितानन्द जी ने कहा कि हे महाराज ! कृपा करके कोई ऐसा स्थान बता दीजिए कि जहां मैं निर्विघ्न भजन कर सकूं। लाला जी ने नितानन्द जी की बात स्वीकार की और कहने लगे कि यहां से तेरह कोस की दूरी पर एक बन चार गांवों के मध्य में है और उस के चारों ओर चार गाम हैं। जिन के नाम निम्नलिखित हैं। पूर्व की ओर माजरा, पश्चिम की ओर बास, उत्तर में सिवाना और दक्षिण में महमूदपुर (बिगोवा) है। और उस बन में वो सरोवर अति मनोहर प्रसिद्ध है, जटेला मध्य में स्थित है और दूसरा जगसीसर नाम करके महमूवपुर के निकट है। वहां भजन करो, तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। इसके बाद स्वमी नितानन्द जी महाराज जटेला पहुंचे और यहां तालाब के किनारे जाल के पेड़ के नीचे बैठकर तपस्या करने लगे। आज इस स्थान को जटेला धाम के नाम से जाना जाता है।

जाल के पेड़ के नीचे से ही हुए अंतरध्यान हुए

दंतकथाओं के अनुसार स्वामी नितानन्द जी ने यहीं कई वर्षों तक तप किया और सम्वत् 1856 भादो सुदी एकम को प्रातः काल उठकर स्वामी जी ने कहा, कि आज दूध बिलोया न जाए किन्तु खान पान में काम आए, फिर स्वामी जी अपने शिष्य ध्यानदास से कहा, भाई तू रानीले चला जा और शीघ्र ही हरीदास को बुला ला, कुछ कहना नहीं, वह स्वयं ही जान जाएंगे और साथ चला आएगा। उन्होंने लोगों से कहा कि आज हम शरीर छोड़ेंगे, तुम सबको इसे दाह करने या दबाने की आवश्यकता नहीं। मेरे शरीर को जाल के उसे पेड़ के नीचे रख दिया जाए जहां हम हम भजन किया करते थे। यह सुनकर लोगों व शिष्यों ने कहा, महाराज जी। इस प्रकार बिठाने से पशु-पक्षी आप के शरीर की दुर्गति करेंगे, और हमारे लिए बड़ा भारी अपयश का कारण होगा। महाराज जी ने कहा, कुछ चिंता मत करो कुछ कहो संसार का तो ऐसा ही स्वभाव है, फिर स्वामी नितानन्द जी ने निम्नलिखित अरल उच्चारण की
जो प्रानी मर जाय उसे ना जारिये,
हाथों हाथ उठाय जंगल में डारिये।
सब पक्षी मिल खाहिं कि चीरें चाम को,
भर जाय जिन का पेट दुआ दे राम को ॥
इस प्रकार अरल उच्चारण कर पद्मासन लगा नेत्र मूंद अंतरंग वृत्ति करके कुछ समय स्थिर रहे, सब सत्संगियों के देखते-देखते स्वामी नितानन्द जी ने शरीर का परित्याग किया। पीछे सब सत्संगी शंख और रणसींगा बजाते हुए जटेला ले गए, और ध्यानदास जी हरिदास जी के पास गए, हरिदास ध्यानदास को दखते ही जटेला के लिए चल दिए। मार्ग में ध्यानदास ने हरिदास से यह प्रश्न किया कि महाराज जी ने आप को बुलाया किन्तु कार्य कुछ नहीं बतलाया तथा तुम मेरे को देखकर साथ चले आए इसका क्या कारण है। हरिदास जी ने कहा आज स्वामी जी ने शरीर का परित्याग किया है तुम को मेरे पास इस लिए भेज दिया कि प्रथम की भांति कुछ रुकावट न कर वो इस प्रकार बात करते हुए जटेला सरोवर के निकट आए और स्वामी जी के शरीर को देखा यथा विधि एक जाल के वृक्ष के नीचे महाराज जी के शरीर को स्थापित किया और परिक्रमा करके सब लोग गांव को चले, मार्ग में आ रहे थे कि कुछ ऐसा सुनाई दिया कि कोई विमान आकाश मार्ग से जा रहा है इतने में स्वामी नितानन्त जी की चरण पादुका सभी लोगों के बीच में आकर गिरी इस अद्भुत चमत्कार को देखकर सब लोग मार्ग में खड़े हो गए व विचार करने लगे कि देखना चाहिए कि चरण पादुका कहां से आई हैं। इसके बाद सभी जाल के पेड़ के पास आए तो देखा की स्वामी जी की पार्थिव देह वहां नहीं थी। सभी आश्चर्यचकित थे। महाराज नितानन्द जी के समय की 5 वस्तुएं वहां मिली जो आज भी विराजमान हैं। इनमें एक निवार का पलंग, दूसरे स्वामी जी की ओढ़ने की गूदड़ी, तीसरे स्वामी जी के जल पीने का लोटा, चौथी भोजन करने की कटोरी और पांचवीं चरण पादुका जो लोगों को उस समय आकाश मार्ग से गिरने से प्राप्त हुई थी। ये पांचों चीजें मेले के वार्षिक उत्सव पर आने वाले यात्रियों को फाल्गुन की पूर्णमासी और कभी चैत्र की एकम को हर्षपूर्वक दिखाई जाती हैं।

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