Festival Teej
- अब पेड़ ही नहीं तो कहां डालें झूला, न ही दिखती घेवर में वो मिठास
- आधुनिक दुनिया में बदरंग हो रहे सभी त्योहार, परंपराएं छूट रहीं पीछे
- आधुनिकता के लिबास में नई पीढ़ी पारंपरिक पर्वों के मायने ही भूली
ऐसी आधुनिकता की अंधी दौड़ से तीन का पर्व भी कैसे बच सकता है। न बाग रहे न बागवान, ना ऊंचे पेड़ आखिर तीज की पींग सजे भी तो कहां। आर्टिफिशियल दुनिया में सबकुछ बदरंग है। अब न घेवर में वो मिठास दिखती है और न ही सावन के मौसम में आने वाला नई नवेली दुल्हनों का सिंजारा या सिंधारा। श्रृगांर रस के इस पर्व को महिलाएं आर्टिफिशल झूलों पर पींगे लेकर ही निभा रही हैं। करीब तीन दशक पहले तक सावन माह के शुरू होते ही बागां में झूले पड़ जाते थे। इस दौरान महिलाएं बागां में पड़ गए झूले, चल झूलन चालां ए सखी आदि गीत की पंक्तियां गुनगुनाती हुई सहेलियों के साथ बागों में पहुंचती थी। मगर हाईटेक होती जिंदगी में अब न बाग रहे और ना ही बागां में झूलने वाली महिलाएं।
नव नवेली दुल्हन को पींग दिलवाना था परंपरा
एक गांव की करीब 80 वर्षीय रामकली, संतोष व बोहती देवी ने बताया कि उनके जमाने में पहली तीज पर नई दुल्हन को गांव की आस-पड़ौस की महिलाएं लेकर नजदीक किसी बाग में ले जाती थी और उसे झूले की पींगे दिलवाती थी। साथ में वह आप सभी भी पींगे लेकर झूले का आनंद उठाती थी। इस दौरान पूरे गांव के नजदीक स्थित बागां में झूले ही झूले दिखाई देते थे। खास बात यह है कि तीज पर्व के दिन महिलाएं अपने घरों से निकलकर दिन भर बागां में झूला झूलती थी। लेकिन अब समय बीत गया है। अब न तो बाग दिखाई देते हैं और ना ही सावन माह में झूलों पर गुंजती महिलाओं की मधुर कोकिला आवाज।
नहीं सुनाई देते पीया वियोग के गीत
रामकली का कहना है कि तीज पर्व पर महिलाएं पूरा श्रृंगार करके सज-धजकर अपने पिया के वियोग के गीत गाती थी। जिससे न केवल वातावरण नवयौवन के हिलौरे लेने लगता था, बल्कि महिलाओं और पुरूषों में एक नई उमंग पैैदा हो जाती थी। अब लोगों के पास न तो वक्त है और ना ही मन की शांति है। जिसकी वजह से लोग अपनी भाग दौड़ भरी जिंदगी में अब तीज जैसे पर्वों को मनाना भूल गए हैंं।
अब व्यस्त दिनचर्या
रेशमी देवी का कहना है कि वर्तमान में आम आदमी की जिंदगी इतनी व्यस्त हो गई है कि उसके पास पर्व मनाने का समय नहीं है। वह सारा दिन अपनी आजीविका के चक्कर में लगा रहता है। दूसरा कारण है कि आधुनिकता के रंग में रंगी नई पीढ़ी पारंपरिक पर्वों की महता के बारे में अनभिज्ञ है। जिससे आज हमारे त्योहारों के रंग फीके पड़ने लगे हैं।
सिंधारा तीज सुहागिनों का मुख्य पर्व
कॉस्मिक एस्ट्रो के डॉयरेक्टर और श्रीदुर्गा देवी मन्दिर पिपली कुरुक्षेत्र के अध्य्क्ष ज्योतिष व वास्तु आचार्य डॉ.सुरेश मिश्रा ने बताया कि हरियाली तीज सावन महीने का महत्वपूर्ण पर्व है। यह दिन सुहागन स्त्रियों के लिए बहुत महत्त्व रखता हैं। श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हरियाली तीज मनाई जाती है। कई जगह इसे कज्जली तीज या सिंधारा तीज भी कहते हैं। इस वर्ष हरियाली तीज 7 अगस्त बुधवार को चन्द्रमा सिंह राशि के और पूवा र्फाल्गुनी नक्षत्र में धूमधाम से मनाई जाएगी। इस दिन सुहागने मां गौरी की पूजा करती हैं। हरियाली तीज का व्रत सर्वप्रथम राजा हिमालय की पुत्री पार्वती ने रखा था। जिसके कारण उन्हें भगवान शिव जी स्वामी के रुप में प्राप्त हुए। इसलिए हरियाली तीज पर कुंवारी लड़कियां व्रत रखती हैं और अच्छे वर की प्राप्ति के लिए माता पार्वती से प्रार्थना करती हैं। सुहागनें इस दिन उपवास रखकर माता पार्वती और शिव जी से सौभग्य और पति की लंबी उम्र की प्रार्थना करती हैं।
हरियाली तीज का व्रत
इस दिन निर्जला व्रत रखा जाता है और विधि-विधान से माता पार्वती और शिव जी की पूजा होती है। महिलाएं कथा सुनती हैं और पूजा करती है। कथा समापन के बाद महिलाएं मां गौरी से अपने पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं। इसके बाद घर में उत्सव मनाया जाता है।
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